मास्टर साहब टयूशन पर जाने की तैयारी में थे। माया ने कहा---'सुनते हो, मुझे एक नई खादी की साड़ी चाहिए, और कुछ रुपये। महिला-संघ का जलसा है, मैंने उसमें स्वयं-सेविकाओं में नाम लिखाया है।'
'किन्तु रुपये तो अभी नहीं हैं, साड़ी भी आना मुश्किल है, अगले महीने में...'
माया गरज पड़ी---'अगले महीने में या अगले साल में! आखिर क्या में भिखारिन हूं? मैं भी इस घर की मालकिन हूं, ब्याही आई हूं---बांदी नहीं।
'सो तो ठीक है प्रभा की मां, परन्तु रुपया तो नहीं है न। इधर बहुत-सा कर्जा भी तो हो गया है, तुम तो जानती ही हो..।'
'मुझे तुम्हारे कर्जों से क्या मतलब? कमाना मर्दों का काम है या औरतों का? कहो तो मैं कमाई करूं जाकर?'
'नहीं, नहीं, यह मेरा मतलब नहीं है। पर अपनी जितनी आमदनी है उतनी...'
'भाड़ में जाए तुम्हारी आमदनी। मुझे साड़ी चाहिए, और दस रुपये।'
'तो बन्दोबस्त करता हूं।' मास्टर साहब और नहीं बोले, छाता सम्भालकर चुपचाप चल दिए।
पूरी तैयारी के साथ सज-धजकर जब माया जलसे में गई तो हद दरजे चमत्कृत और लज्जित होकर लौटी। चमत्कृत हुई वहां के वातावरण से, व्याख्यानों से, कविताओं और नृत्य से, मनोरंजन के प्रकारों से। उसने देखा, समझा---अहा, यही तो सच्चा जीवन है,