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२८ :: अदल-बदल
 

'परन्तु किस तरह, कैसे मैं इस बन्धन से मुक्ति पा सकती हूं।'

'हिन्दू कोडबिल तुम्हारे लिए आशीर्वाद लाया है, नई जिन्दगी का संदेश लाया है। यह तुम्हारी ही जैसी देवियों के पैरों में पड़ी परतन्त्रता की बेड़ियों को काटने के लिए है। इससे तुम लाभ उठाओ।'

माया की आंखें चमकने लगीं। उसने कहा---'यही तो मैं भी सोचती हूं श्रीमती जी। आपही कहिए, चालीस रुपये की नौकरी, फिर दूध धोए भी बना रहना चाहते हैं। आप ही कहिए, दुनिया के एक कोने में एक-से-एक बढ़कर भोग हैं, क्या मनुष्य उन्हें भोगना न चाहेगा?'

'क्यों नहीं, फिर वे भोग बने किसके लिए हैं? मनुष्य ही तो उन्हें भोगने का अधिकार रखता है।'

'यही तो। पर पुरुष ही उन्हें भोग पाते हैं। वे ही शायद मनुष्य हैं, हम स्त्रियां जैसे मनुष्यता से हीन हैं।'

'हमें लड़ना होगा, हमें संघर्ष करना होगा। हमें पुरुषों की बराबर का होकर जीना होगा। इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए हमने यह आजाद महिला-संघ खोला है। तुम्हें चाहिए कि तुम इसमें सम्मिलित हो जाओ। इसमें हम न केवल स्वतन्त्रता का पाठ पढ़ाते हैं, बल्कि स्त्रियों को स्वावलम्बी रहने के योग्य भी बनाते हैं। हमारा एक स्कूल भी है, जिसमें सिलाई, कसीदा और भांति-भांति की दस्तकारी सिखाई जाती है। गान-नृत्य के सीखने का भी प्रबन्ध है। हम जीवन चाहती हैं, सो हमारे संघ में तुम्हें भरपूर जीवन मिलेगा।'

'तो में श्रीमतीजी, आपके संघ की सदस्या होती हूं। जब ये स्कूल चले जाते हैं मैं दिनभर घर में पड़ी ऊब जाती हूं। यह भी नहीं कि वे मेरे लिए कुछ उपहार लेकर आते हों या