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२४ :: अदल-बदल
 

'आ गई तो अच्छा हुआ, अब महीने के खर्च का क्या होगा?'

'ट्यूशन ही के बीस रुपये जेब में पड़े हैं, उन्हीं में काम चलाना होगा।'

'ट्यूशन के बीस रुपये? वे तो रात काम में आ गए। मैंने ले लिए थे।

'वे भी खर्च कर दिए?'

'बड़ा कसूर किया, अभी फांसी चढ़ा दो।'

'नहीं, नहीं, प्रभा की मां, मेरा ख्याल था---चालीस रुपयों में तुम काम चला लोगी, बीस बच रहेंगे। इससे दब-भींचकर महीना कट जाएगा।'

'यह तो रोज का रोना है। तकदीर की बात है, यह घर मेरी ही फूटी तकदीर में लिखा था। पर क्या किया जाए, अपनी लाज तो ढकनी ही पड़ती है। लाख भूखे-नंगे हों, परायों के सामने तो नहीं रह सकते। वे सब बड़े घर की बहू-बेटियां थीं, कोई खटीक-चमारिन तो थी ही नहीं। फिर साठ-पचास रुपये की औकात ही क्या है?'

मास्टर साहब चिन्ता से सिर खुजलाने लगे। उन्हें कोई जवाब नहीं सूझा। महीने का खर्च चलेगा कैसे, यही चिन्ता उन्हें सता रही थी। अभी दूध वाला आएगा, धोबी आएगा। वे इस माह में जूता पहनना चाहते थे---बिलकुल काम लायक न रह गया था। परन्तु अब जूता तो एक ओर रहा, अन्य आवश्यक खर्च की चिन्ता सवार हो गई।

पति को चुप देखकर माया झटके से उठी। उसने कहा---'अब इस बार तो कसूर हो गया भई, पर अब किसीको न बुलाऊंगी। इस अभागे घर में तो पेट के झोले को भर लिया जाए, तो ही बहुत है।'

उसने रात का बासी भोजन लाकर पति के सामने रख दिया।