माया भरी बैठी थी। मास्टर हरप्रसाद ने ज्योंही घर में कदम रखा, उसने विषदृष्टि से पति को देखकर तीखे स्वर में कहा---'यह अब तुम्हारे आने का समय हुआ है? इतना कह दिया था कि आज मेरा जन्मदिन है, चार मिलने वालियां आएंगी, बहुत कुछ बन्दोबस्त करना है, ज़रा जल्दी आना। सो, उल्टे आज शाम ही कर दी।'
'पर लाचारी थी प्रभा की मां, देर हो ही गई!'
'कैसे हो गई? मैं कहती हूं, तुम मुझसे इतना जलते क्यों हो?
इस तरह मन में आंठ-गांठ रखने से फायदा? साफ क्यों नहीं कह देते कि तुम्हें मैं फूटी आंखों भी नहीं सुहाती!'
'यह बात नहीं है प्रभा की मां, तनख्वाह मिलने में देर हो गई। एक तो आज इन्स्पेक्टर स्कूल में आ गए, दूसरे आज फीस का हिसाब चुकाना था, तीसरे कुछ ऑफिस का काम भी हैडमास्टर साहब ने बता दिया---सो करना पड़ा। फिर आज तनखाह मिलने का दिन नहीं था---कहने-सुनने से हैडमास्टर ने बन्दोबस्त किया।'
'सो उन्होंने बड़ा अहसान किया। बात करनी भी तुमसे आफत है। मैं पूछती हूं कि देर क्यों कर दी---आप लगे आल्हा गाने। देखूं, रुपये कहां हैं?
मास्टर साहब ने कोट अभी-अभी खूटी पर टांगा ही था, उसके जेब से पर्स निकालकर आंगन में उलट दिया। दस-दस रुपये के चार नोट जमीन पर फैल गए। उन्हें एक-एक गिनकर माया ने नाक-भौं चढ़ाकर कहा---'चालीस ही हैं, बस?'