के यहां उत्सव आदि में बड़ी-बूढ़ियों के साथ जाए। पति के प्रथम जागे और पीछे सोए। बिना खास काम के सोते पति को न जगाए। भण्डार आदि को खूब सजाए, पशु-पक्षी आदि का प्रेम से पालन करे, पर-पुरुष सम्बन्धी से भी एकान्त में बातचीत न करे। शरीर को दुर्गन्धित न होने दे, आभूषण, फूल आदि उपयुक्त ही धारण करे, अधिक नहीं। घर-गृहस्थ की सब चीजों को फसल में संग्रह करके रख ले, किसी चीज को खराब न जाने दे। हिसाब-किताब आदि ठीक-ठीक रखे। सेवकों को समय पर वेतन, भोजन देकर संतुष्ट रखे। अचार, मुरब्बे, सिरका, आसव आदि सब कुछ निर्माण करे। इन गुणों से स्त्री पति की अनुरक्ता हो जाती है।
संक्षेप में निष्कर्ष यह है कि स्त्रियों को पति और पति-घर से पूरी ममता, प्रेम और आत्मीयता रहनी चाहिए। उस घर और घर से सम्बन्ध रखने वाली प्रत्येक वस्तु की रक्षा और पालन का ध्यान रखना चाहिए। जिस प्रकार बीज गलकर वृक्ष उगता है, उसी भांति गृहस्थ के खेत में स्त्री को गल जाना चाहिए उस गृहस्थ से भिन्न उसका कोई व्यक्तिगत स्वार्थ नहीं रहना चाहिए। स्त्री को सब परिस्थितियों को युक्ति और अध्यवसाय से अनुकूल और सौम्य बनाकर अपना जन्म धन्य करना चाहिए।
पति या घर का कोई भी व्यक्ति, चाहे वे सास-ससुर, गुरुजन ही क्यों न हों, कोई अनाचार करे तो तुरन्त वीरतापूर्वक अन्त- युद्ध छेड़ देना चाहिए और वह उस समय तक बन्द न किया जाना चाहिए, जब तक कि विरोध के कारण जड़मूल से नष्ट न हो जाएं।
अपने प्रियजनों से युद्ध करना शत्रु से युद्ध करने की अपेक्षा भिन्न वस्तु है। शत्रु से युद्ध तो शत्रु को नष्ट करने के विचार से किया जाता है, परन्तु अपने प्रियजनों से युद्ध का अभिप्राय यह होता है कि दोनों में जो भिन्नता या विरोध है---जिससे विश्वास