कुमुद भी खूब रोई।
किशोरी ने अन्त में कहा--'जीजी, क्या वह ऐसे हैं?'
'किशोरी, मुझे इसका स्वप्न में भी संदेह न था। मैं पृथ्वी में सबसे अधिक गर्व अपने पति पर करती थी, और उन्हें अपने प्रेम के कवच से रक्षित समझती थी। आज मैंने उन्हें पहचाना। किशोरी, मैं बड़ी ही अभागिन और अधम नारी हूं।'
'नहीं जीजी, ऐसा न कहो, तुम्हारा इसमें क्या दोष है?'
'सब मेरा ही दोष है। मैंने ही तुझे उनके सामने भेजा, हंसी की, और उनमें साहस उत्पन्न किया। पर मुझे क्या मालूम था कि विनोद को भी पापी व्यक्ति पाप के रूप में काम में लाता है।'
किशोरी कुछ न कहकर उठ खड़ी हुई।
'कुमुद ने कहा--'क्या जाती हो? अभी न जाने पाओगी।'
'क्यों?'
'क्या तुम मुझसे भी घृणा करती हो?'
'नहीं जीजी।' किशोरी की आंखों में आंसू भर आए।
'वैसा ही समझती हो?
'वैसा ही।
'तब अभी ठहरो, मैं तुम्हें साथ चलकर पहुंचा दूंगी।'
'अभी चलो जीजी।'
'ज़रा ठहर, एक और वचन लूंगी।'
'क्या?
'यह बात कभी किसी से न कहेगी, कभी भी।'
'न कहूंगी।' किशोरी ने उदास स्वर में कहा।
'और यहां बराबर उसी भांति आती रहेगी।'
किशोरी ने कातर दृष्टि से कुमुद को देखकर कहा--न, यह न होगा जीजी।'