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१६० :: अदल-बदल
 


उदय हो ही गया। क्षणभर वह श्वास भी न ले सके। कुछ देर वह उसे देख न सके, न एक शब्द कह सके।

किशोरी यह देख वहां से खिसक चली। राजेश्वर ने कठिनाई से कहा--'जाती कहां हो किशोरी, कैसे आई थीं?'

'मैं बहिनजी को बुलाने आई थी, जमुना जाना था, रात उन्होंने कहला भेजा था, कहां हैं?'

राजेश्वर ने झूठ बोल दिया--'ठहरो, वह अभी आती है।' झूठ कहकर वह मानो थर-थर कांपने लगे। उनका कंठ सूख गया। उन्हें मानो ज्वर का वेग हो गया। उन्होंने सूखे कंठ से कहा--'बैठो किशोरी।'

किशोरी खड़ी ही रही। वह कुछ भी निर्णय न कर सकी। न वह जा ही सकी। इस बीच में राजेश्वर साहस करके उठकर उसके पास आए। उसने समझा, वह बाहर जा रहे हैं। वह द्वार से हटकर कमरे में एक ओर हो रही।

हठात् राजेश्वर ने उसका हाथ पकड़कर कहा--'किशोरी, क्या तुम मुझसे डरती हो?'

किशोरी के शरीर में रक्त की गति रुक गई। वह पीपल के पत्ते की भांति कांपने लगी। वह सिकुड़कर वहां से चलने लगी।

राजेश्वर ने उसका हाथ पकड़कर कहा--'किशोरी, मैं तुम्हें प्यार करता हूं। किसी से कहना नहीं, कुमुद से भी नहीं।'

'किशोरी ने थोड़ा बल किया पर जब वह हाथ न छुड़ा सकी तो उसने आर्तनाद करके कहा--'छोड़िए, मैं जाती हूं।'

'किशोरी जाओ नहीं, मैं तुम्हें देखने को सदैव पागल रहता हूं।'

किशोरी की आंखों में आंसू भर आए। उसने रोते-रोते कहा--'छोड़िए, छोड़िए, नहीं...छोड़िए।'