कुमुद झटका देकर उठी, और राजेश्वर को गिराती तथा कुर्सी में अटकी अपनी साड़ी फाड़ती और हंसती हुई वहां से भाग गई।
राजेश्वर बक-झक करते ही रह गए।
वकील साहब की उम्र चालीस को पार कर गई थी। वह बहुत गम्भीर और उदासीन प्रकृति के आदमी थे। अपने मुवक्किलों में रूखे और खरे तथा अदालत में तीखे आदमी प्रसिद्ध थे। बहुत कम उन्हें हंसी-दिल्लगी करते देखा गया था। उनके यार-दोस्त भी कम थे। रसिकता नाम की कोई वस्तु उनमें थी ही नहीं। परन्तु किशोरी जैसे उनकी आंखों मे तप्त सलाई की भांति घुस गई हो। उनका मन न कचहरी में लगता था, न मुवक्किलों में। वह कुमुद से उसकी चर्चा करते भय खाते थे। पर घर में आते ही चारों ओर आंखें फाड़-फाड़कर देखते कि क्या किशोरी कहीं दीवार के कोने में छिपी तो नहीं है। वह बड़ी सावधानी से घर में घुसते। वहां कुमुद किशोरी की कुछ चर्चा करती है या नहीं इस बात की वह बराबर टोह रखते। कुमुद उनकी सदैव ही, प्रतीक्षा करती मिलती। वह मानो मन-ही-मन पति की इस भावना को समझ गई थी, इसीलिए उन्हें देखते ही उसकी सदा की हंसती हुई आंखें और भी उत्फुल हो जाती थीं।
दोपहर का समय था। कचहरी की छुट्टी थी। वकील साहब भोजन कर चुपचाप पलंग पर पड़ें पान कचर रहे थे। कुमुद नीचे कालीन पर बैठी छालियां काट रही थी। पति-पत्नी दोनों के मन में एक ही बात थी, परन्तु दोनों ही वह बात कह नहीं सकते थे। कुमुद यह कठिनाई देख मुस्करा रही थी। वकील साहब झेंपकर छिपी नजरों से कुमुद को देख रहे थे।