'हंसी की भी एक हद होती है, मर्यादा से बाहर जाना ठीक नहीं।'
'मर्यादा के बाहर क्या हुआ?'
'गैर लड़की को अकेला मर्दों में भेजना ठीक नहीं।'
'पर वह तो आपकी साली साहिबा है, गैर नहीं।'
'मुझे सालियों की जरूरत नहीं।'
'आपकी जरूरत को कौन पूछता है?'
'आइन्दा फिर ऐसा कभी न करना।'
'देखा जाएगा।'
'अभी तुम्हारा अल्हड़पन नहीं गया।'
'जी नहीं, मुझे वकीलों की तरह लम्बा मुंह बनाकर कानूनी बहस नहीं करनी पड़ती।'
'मैं तुमसे बहस नहीं करता, उस आफत को अब कभी घर न बुलाना, न उसकी चर्चा करना।'
'वह मारा! आफत, आफत, मन की बात तो मुंह से निकल गई। मालूम होता है, मन को भा गई।' वह हंसते-हंसते लोट गई। रावेश्वर झुंझलाकर घर से बाहर निकल गए।
वह सीधे क्लब गए। वहां जी न लगा, तो घूमने दूर तक निकल गए। वहां भी मन न लगा, तो एक दोस्त के घर जाकर शतरंज खेलने लगे। पर कहीं भी उनका मन नहीं लगा। वह अन्यमनस्क से घर लौटे, चुपके से खाना खाया, और अखबार ले बैठे। उनके मन में वही आफत रम रही थी। वह बिजली की तरह प्रकाश-पुंज को लपेटे कमरे में घुसना और तूफान की तरह निकल भागना, आंधी की भांति सब कुछ बखेर जाना, ये ही सब बातें उनके दिमाग में हलचल मचा रही थीं। वह इस बात पर