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पाप::१५१
'तुझे ही आज भेजूंगी।' 'बहन जी, हाथ जोड़ती हूं।' 'हाथ जोड़ चाहे पांव।' 'नहीं जीजी, नहीं।' 'तब मैं नाराज हो गई, ले।' 'बहनजी माफ करो, मुझे न भेजो।' 'बस, मैं बोलती नहीं।' 'अजी, वहां और भी आदमी हैं।' 'तुम क्या बहू हो ? बेटी हो, परदा क्या है।' 'तब तुम भी चलो।' 'मैं आदमियों में कहां जाऊं?' 'चिक के पास खड़ी रहना।' 'अच्छा, चल।'
दोनों स्त्रियां चलीं । बालिका के हाथ में नाश्ते की तश्तरी और पानी का गिलास था । द्वार पर जाकर गृहिणी ने उसे धकेल दिया। बालिका आंखें बन्द कर, गिलास और तश्तरी टेबल पर रख, सिर पर पैर रखकर भागी, तो अपने घर पर ही आकर दम लिया। गृहिणी कमरे में आकर पलंग पर लोट-पोट होकर हंसने लगी।
'जैसे बिजली कौंधा मार गई हो। राजेश्वर भौंचक-से रह गए। वह एक क्षण भी उस ज्वलंत चांचल्य को आंख भरकर न देख सके। मानो उनके शरीर का सारा रक्त दिमाग में इकट्ठा हो गया हो, और नसों में पारा भर गया हो। परन्तु वह शीघ्र ही संयत हो गए। वह चुपचाप अपने कागजात देखते रहे, पर उनका कलेजा धड़क रहा था। वह रह-रह कर सोच रहे थे, अजब लड़की