'चलिए फिर।'
रजनी चुपचाप चल दी।
दूसरे दिन तमाम दिन मिस्टर दिलीप कमरे से बाहर नहीं निकले, सिरदर्द का बहाना करके पड़े रहे। भोजन भी नहीं किया। अभी उन्हें यह भय बना हुआ था कि उस बाधिनी ने यदि राजेन्द्र से कह दिया तो गजब हो जाएगा।
संध्या समय रजनी ने उनके कमरे में जाकर देखा कि वे सिर से पैर तक चादर लपेटे पड़े हैं। रजनी ने सामने की खिड़की खोल दी और एक कुर्सी खींच ली। उस पर बैठते उसने कहा--'उठिए मिस्टर दिलीप, दिन कब का निकल चुका है और अब छिप रहा है।'
दिलीप ने सिर निकाला। उनकी आंखें लाल हो रही थीं, मालूम होता था खूब रोए हैं। उन्होंने भर्राए हुए गले से कहा--'मैं आपको मुंह नहीं दिखा सकता, मैं अपनी प्रतिष्ठा की चर्चा करने का साहस नहीं कर सकता, पर आप अपनी प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए वचन दीजिए कि आप घर में किसीसे भी यह बात नहीं कहेंगी।'
'मैं तो तुम्हें क्षमा कर चुकी, दिलीप।'
'यह कहिए, किसीसे भी नहीं कहेंगी।'
'अच्छा नहीं कहूंगी, उठो।'
'किसी से भी नहीं?'
'किसी से भी नहीं।'
'भैया से भी नहीं?'
'अच्छा, अच्छा, भैया से भी नहीं।'
'और उस दुष्टा दुलारी से भी नहीं?'
रजनी हंस पड़ी, बोली--'अच्छा, उससे भी नहीं।'