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मरम्मत :: १३९
 

दिलीप ने बात काटते हुए कहा--'प्यारी रज्जी, क्यों दिल को जलाती हो, इस दास पर रहम करो। मैं तुम्हारा बे दाम का चाकर हूं। अपने नाजुक और कोमल हाथों•••।'

कहते-कहते उसने रजनी के हाथ पकड़ने को हाथ बढ़ाया। इसी बीच रजनी ने तड़ाक् से एक तमाचा जो महाशय के मुंह पर जड़ा तो उजाला हो गया, पैरों की जमीन निकल गई। वह मुंह बाए वैसे ही बैठे रह गया।

रजनी ने स्थिर गम्भीर स्वर में कहा--'मिस्टर दिलीप, मैं तुम्हारी गलती सुधारना शुरू करती हूं। देखो, अब तो तुम समझ गए कि ये हाथ उतने नाजुक और कोमल नहीं हैं, जितने तुम समझे बैठे हो। कहो, तुम्हारी आंख बची या फूटी? मैंने ज़रा बचाकर ही तमाचा जड़ा था। अब दूसरी गलती भी मैं सुधारती हूं। देखो, सामने वह जो यूरोपियन लड़की बैठी है--वह मुझसे हजार दर्जे अच्छी है या नहीं। तुम दुनिया की कहते हो, मैं तुम्हें यहीं दिखाए देती हूं, कहो, है या नहीं?'

मिस्टर दिलीप की सिट्टी गुम हो रही थी, वे चेष्टा करने पर भी नहीं बोल सके। रजनी ने धीमे किन्तु कठोर स्वर में कहा--'बोले रे, अधम, वंचक, लम्पट, पढ़े-लिखे गधे, मेरी बात का जवाब दे, वरना अभी चिल्लाकर सब आदमियों को मैं इकट्ठा करती हूं।'

दिलीप ने हाथ जोड़कर धीमे स्वर में कहा--'मुझे माफ कीजिए रजनी देवी, मुझे माफ कीजिए।'

रजनी ने घृणा से होंठ सिकोड़कर कहा--'अरे, तुम्हारा तो स्वर ही बदल गया, और टोन भी। अब तुम मुझे 'तुम' कहकर नहीं पुकारोगे। 'रज्जी, नहीं कहोगे। बदमाश, तुम मित्र की बहिन की प्रतिष्ठा नहीं रख सके! तुम जैसे जानवर किसी भले घर में जाने योग्य, किसी बहू-बेटी से खुलकर मिलने योग्य हो