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१३४ :: अदल-बदल
 


भांति रजनी ने भी महाशय जी को खिलाना शुरू कर दिया।

दुलारी बड़ी मुंहफट और ढीठ औरत थी। रजनी का संकेत पाकर वह जब-तब चाहे जिस बहाने उनके कमरे में जा एकाध फुलझड़ी छोड़ आती। एक बार उसने कहा--'आज कोई और नहीं है इसलिए जीजी ने कहा है आपकी खातिरदारी का भार उन पर है। सो आप संकोच न करें। जिस चीज की आवश्यकता हो कहिए, मैं हाजिर करूं, जीजी का यही हुक्म है।'

मिस्टर दिलीप ने मुस्कराकर कहा--'तुम्हारी जीजी इस तुच्छ परदेशी का इतना ख्याल करती हैं, इसके लिए उन्हें धन्यवाद देना।'

दुलारी ने हंसकर और साड़ी का छोर आगे बढ़ाकर कहा-- 'बाबूजी, हम गंवार दासी यह बात नहीं जानतीं, यह तो आप ही लोग जानें--कहिए तो मैं जीजी को बुला लाऊं, आप उन्हें जो कहना हो, कहिए।'

दिलीप हंस पड़ा। उसने कहा--'तुम बड़ी सुघड़ औरत हो।'

दुलारी ने साहस पाकर कहा--'बाबूजी, आप हमें अपने घर ले चलिए, बहूजी की खिदमत करके दिन काट दूंगी।'

दिलीप महाशय ने जोर से हंसकर कहा--'मगर बहू रानी भी तो हों, अभी तो हम ही अकेले हैं।' इस पर दुलारी ने कपार पर भौंहें चढ़ाकर कहा--'बाप रे, गजब है, आप बड़े लोगों की भी कैसी बुद्धि है। भैया क्वारे, जीजी क्वारी, आप भी क्वारे।'

भूमिका आगे नहीं चली। गृहिणी ने दुलारी को बुला लिया। रजनी ने सब सुना तो मुस्करा दिया।

दोपहर की डाक आई। दुलारी ने पूछा--'जीजी की कोई चिट्ठी है?' दिलीप ने साहसपूर्वक मासिक पत्रिकाओं तथा चिट्ठियों के साथ अपनी चिट्ठी भी मिलाकर भेज दी और अब वह धड़कते कलेजे से परिणाम की प्रतीक्षा करने लगा।