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मरम्मत :: १२९
 


सुनती रही, एकाध बार वह मुस्कराई भी, पर एक अपरिचित युवक के सामने इतनी घनिष्ठता पसन्द नहीं आई।

दिलीप ने अब कहना शुरू किया--'रज्जी, तुम्हारा परिचय पाकर मुझे बड़ा आनन्द हुआ। राजेन्द्र ने बार-बार तुम्हारी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा की थी। अब मुझे यहां खींच भी लाए। बड़े हर्ष की बात है कि तुम अपने कालेज में प्रथम रहती रही हो, तुम नारीरत्न हो, मैं तुम्हें देखकर बहुत प्रभावित हुआ हूं।'

रजनी ने उनका उत्तर न देकर केवल मुस्करा भर दिया, फिर उसने भैया से कहा--'जलपान नहीं हुआ न, यहीं ले आऊं?' वह जाने लगी तब दुलारी ने आकर कहा--'भैया जलपान बैठक में तैयार है।'

राजेन्द्र ने कहा--'यहीं ले आ। तुम ठहरो रजनी, दुलारी ले आएगी।'

तीनों के बैठ जाने पर राजेन्द्र ने कहा--'रजनी, तुम अभी तक अपने कमरे में क्या कर रही थीं?'

'मैं विद्रोह कर रही थी।' रजनी ने तिरछी नजर से भाई को घूरकर और होंठों पर वैसी ही मुस्कान भरकर कहा।

'वाह रे, विद्रोह, जरा सोच-समझकर कोई बात कहना, दिलीप के पिता सी० आई० डी० के डिप्टी सुपरिटेंडेंट हैं।

'मैं तो खुला विद्रोह करती हूं, षड्यन्त्र नहीं।'

'किसके विरुद्ध यह खुला विद्रोह है?'

'तुम्हारे विरुद्ध।'

'मेरे विरुद्ध? मैंने क्या किया है?'

'तुम पुरुष हो न?'

'इसमें मेरा क्या अपराध है? मुझे रजनी बनने में कोई उज्र नहीं, यदि तुम राजू बन सको।'

'मै पुरुष नहीं बनना चाहती हूं, पुरुषों के विरुद्ध विद्रोह किया