बार ही पत्र में रजनी की बात पूछता है। आने पर वह अधिक देर तक उसीके पास रहता है, बातें करता है, प्यार करता है। उन्होंने क्रुद्ध दृष्टि से पुत्री की ओर देखकर कहा- "भैया का आना इतना दुख रहा है रजनी!'
"भैया का आना तो नहीं, तुम लोगों की यह हाय-हाय जरूर दुख रही है।'
'क्यों दुख रही है री?
"भैया घर में आ रहे हैं तो इतनी उछल-कूद क्यों हो रही है ?
'भैया घर में आ रहे हैं तो हो नहीं? क्या मेरे दस-पांच हैं ? एक ही मेरी आंखों का तारा है । छः महीने में आ रहा है। परदेश में क्या खाता-पीता होगा, कौन जाने । उसे बड़ियां बहुत भाती हैं, मेरे हाथ की कढ़ी बिना उसे रसोई सूनी लगती है, आलू की कचौरी का उसे बहुत शौक है, यह सब इसीसे तो बना रही हूं। फिर इस बार आ रहे हैं उसके कोई दोस्त । रईस के बेटे होंगे। उनकी खातिर न करूं?
'करो फिर । मेरा सिर क्यों खाती हो?'
'मैं सिर खाती हूं, अरी तेरा सिर तो इन-किताबों ने ही खा डाला है। मां को ऐसे जवाब देती है ! दोपहर हो गया, पलंग से नीचे पैर नहीं देती। भैया के आने से पहले माथे पर बल पड़ गए है ंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंंं।'
रजनी ने वक्र दृष्टि से मां की और देखकर गुस्से में आकर छाती के नीचे का तकिया दीवार में दे मारा, मासिक पत्रिका फेंक दी। उसने तीखी वाणी में कहा-'मैं भी तो आई थी छ: महीने में; तब तो इतनी धूम नहीं थी।'
'तू बेटी की जात है बेटी-बेटा क्या बराबर हैं ?'
'बराबर क्यों नहीं हैं ?