'दशहरे की छुट्टियों में भैया घर आ रहे हैं, उनके साथ उनके एक मित्र भी हैं, जब से यह सूचना मिली है घरभर में आफत मची है। कल दिनभर नौकर-चाकरों की कौन कहे, घर के किसी आदमी को चैन नहीं पड़ा। दीना की मां को चार दिन से बुखार आ रहा था, पर उस बेचारी पर भी आफत का पहाड़ टूट पड़ा। दिनभर गरीब चूल्हे पर बैठी रही। कितने पकवान बनाए गए, कितनी जिन्स तैयार की गई हैं बाप रे ! भैया न हुए भीमसेन हुए। दुलारी उनके लिए, और उनके उन निखट्ट दोस्त के लिए कमरा झाड़ रही है, रामू और रग्घू वहां रूमाल, तौलिए, सुराही, चाय के सेट, चादर, बिछौने और न जाने क्या-क्या सरंजाम जुटाते रहे। रातभर खटखट रही। अभी दिन भी नहीं निकला और बाबूजी आंगन में खड़े गरज रहे हैं। सईस को गालियां सुनाई जा रही हैं-अभी तक गाड़ी स्टेशन पर नहीं गई। फिटिन भी जानी चाहिए और विक्टोरिया भी। कहो जी, अकेला सईस दो-दो गाड़ियां कैसे ले जाएगा। फिर भैया ऐसे कहां के लाट साहब हैं, एक गाड़ी क्या काफी नहीं ? उनके वे दोस्त भी कोई आवारागर्द मालूम देते हैं, छुट्टियों में अपने घर न जाकर पराये घर आ रहे हैं, ईश्वर जाने उनका घर है भी या नहीं।'
रजनी आप-ही-आप बड़बड़ा रही थी। सूरज निकल आया था, धूप फैल गई थी, पर वह अभी बिछौने ही पर पड़ी थी। उसके कमरे में कोई नौकर-नौकरानी नहीं आई थी, इसीसे वह बहुत नाराज हो गई थी। एक हल्की फिरोजी ओढ़नी उसके सुनहरे ।