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तथा धूमधाम पृथ्वी की सब जातियों में सब उत्सवों की अपेक्षा ज़्यादा प्रधान है।

अब मैं फिर उस पत्र के विषय पर आता हूं। पत्र लिखने वाली महिला जहां 'पति-घर' को विरक्ति से 'पर-घर' कहती हैं, वहां वे प्रसव-घटना के प्रति घृणा ओर रोष का भाव भी रखती हैं।

यद्यपि हमारा देश दरिद्र है और जितना कम हम संतान उत्पन्न करें उतना ही अच्छा है, परन्तु मैं दृढ़तापूर्वक यह कहूंगा कि स्त्री का स्त्रीत्व, सौभाग्य-शोभा एवं जीवन का साफल्य प्रसव ही में है। स्त्रीत्व के नाते पत्नी बनना तो उसकी चरम स्वार्थ-सिद्धि है। माता बनना परम पुरुषार्थ कहना चाहिए। यदि स्त्रियां मातृ-पद से घृणा करने लगें तो मैं कहूंगा कि स्त्रियां फिर अपनी सब श्रद्धा और पवित्रता तथा गौरव खो देंगी। मैं इस बात पर बहस नहीं करता कि फिर सृष्टि कैसे चलेगी। कल्पना कर लीजिए कि बच्चे मशीनों से विज्ञान द्वारा बनने लगेंगे। परन्तु मेरा कहना तो यह है कि मातृत्व, स्त्री जाति का एक ऐसा अस्तित्व है कि जिसके बल पर स्त्री जाति सदैव पूजी जाती रहेगी। यदि स्त्री में से मातृत्व निकाल दिया जाए, तो फिर समझिए कि वह स्वर्ग से च्युत हो गई। बिना सन्तान पुरुष अपने गौरव की रक्षा कर सकता है, स्त्री नहीं। मैं आपको वेश्याओं की मिसाल दूंगा। वेश्या जाति की स्त्रियां मातृ-पद से वंचित अभागिनी स्त्रियां हैं। यद्यपि वे भी सन्तान प्रसव करती हैं। पर उन्हें माता पद प्राप्त नहीं है। माता पद उन्हीं को प्राप्त होगा, जिन्हें पति प्राप्त है और धर्मतः दम्पति हैं। वेश्याएं दम्पति नहीं, पत्नी नहीं। उनका स्त्रीत्व और पुरुषत्व से मुक्त सहवास है। वह अस्थायी है और धन उसका प्रधान माध्यम है। इसलिए वेश्या जब अपने यौवन को समाप्त कर चुकती है, तब वह सब प्रतिष्ठा और गौरव से