'......'
'आज दिवाली है बाबूजी ?"
हां बेटी।'
'तुमने कितनी चीजें बनाई थीं-पूरी, कचौरी, रायता, हलुआ...'
'हां, हां, बेटी, तुझे सब अच्छा लगा?'
'हां, बाबूजी, तुम कितनी खील लाए हो, खिलौने लाए हो- मैंने सब वहां सजाए हैं।"
'बड़ी अच्छी है तू रानी बिटिया।'
'यह सब मैं अम्मा को दिखाऊंगी।'
'दिखाना।'
'देखकर वे हंसेंगी।'
'खूब हंसेंगी।'
'फिर मैं रूठ जाऊंगी।'
'नहीं, नहीं, रानी बिटिया नहीं रूठा करतीं।'
'तो वह मुझे छोड़कर चली क्यों गई ?'.
मास्टरजी ने टप से एक बूंद आंसू गिराया, और पुत्री की दृष्टि बचाकर दूसरा पोंछ डाला। तभी बाहर द्वार के पास किसी के धम्म से गिरने की आवाज आई।
मास्टरजी ने चौंककर देखा, गुनगुनाकर कहा-'क्या गिरा? क्या हुआ ?'
वे उठकर बाहर गए, सड़क पर दूर खम्भे पर टिमटिमाती लालटेन के प्रकाश में देखा, कोई काली-काली चीज द्वार के पास पड़ी है। पास जाकर देखा, कोई स्त्री है। निकट से देखा, बेहोश है। मुंह पर लालटेन का प्रकाश डाला, मालूम हुआ माया है।
मास्टर साहब एकदम व्यस्त हो उठे। उन्होंने सहायता के लिए इधर-उधर देखा, कोई न था, सन्नाटा था। उन्होंने दोनों