दुराचारी और अपनी साध्वी पत्नी के साथ निर्मम अत्याचार करने वाला पुरुष उसके साथ वैसा ही कोमल भावुक बनकर रह सकेगा--जैसा उसका प्रथम पति था। परन्तु यह प्रथम और दूसरा क्या? पत्नी का पति एक ही है। क्या उसके जीवित रहते मैं दूसरे पुरुष को अपना अंग दिखलाऊंगी? स्वाधीन होने की आग में मैं अवश्य जल रही हूं--पर इसके लिए मैं अपने शरीर को अपवित्र करूं? नहीं, वह मैं न कर सकूंगी। नहीं कर सकूंगी। नहीं कर सकूंगी।' एकाएक उसे ज्ञात हुआ कि उसकी पुत्री ने उसके कण्ठ में हाथ डालकर पुकारा--मां, और जैसे उसने उसे उठाकर खिड़की की राह बोच सड़क पर फेंक दिया। वह एक चीख मारकर बेहोश हो गई।
यत्न करने पर उसे होश हुआ तो उसने अपने वस्त्र ठीक करके मुस्कराकर डाक्टर से कहा--'बैठ जाइए, अब मैं ठीक हूं।'
'तुमने तो मुझे डरा दिया।
'समय ही ऐसा आ गया है, कि हम लोग अब एक-दूसरे से डरते हैं।'
परन्तु डाक्टर ने बात आगे नहीं बढ़ाई। वे पलंग पर लेट गए और आंखें मूंदकर अपना भविष्य सोचने लगे। कुछ देर बाद माया भी करवट फेरकर पड़ गई। दोनों ही थके हुए थे--शीघ्र ही उन्हें निद्रा देवी ने अपनी गोद में ले लिया।
प्रभात होने पर दोनों ने अपराधी मन लेकर अपनी-अपनी दिनचर्या प्रारम्भ की। एक-दूसरे को देखते और मन की भाषा प्रकट करने में असमर्थ रहते।
धीरे-धीरे दिन व्यतीत होते गए।