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आर्य्यों का आदिम-स्थान
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मानव-जाति के रहने योग्य न था। आर्य्यों के दक्षिण की ओर चले आने पर फिर भी हिमके कई खण्ड-प्रलय हुए। इस कारण आर्य्यों को धीरे धीरे वह देश भी छोड़कर और नीचे, दक्षिण की ओर, बढ़ आना पड़ा। तिलक के मत मे अन्तिम हिम-प्रलय हुए १०,००० वर्ष हुए, और कोई ६००० वर्ष ईसा के पहले आर्य-गण मध्य एशिया में रहने लगे थे।

श्रीमान् तिलक ने आर्य्यों के मेरु प्रदेश में रहने का जो सिद्धान्त निकाला है उसके अब संक्षिप्त प्रमाण सुनिए-

वेदों में उत्तरी ध्रुव सम्बन्धी जो बात हैं वे तो हैं ही, पारसियों की धर्म्मपुस्तक अवेस्ता में यह बात अधिक स्पष्टता से लिखी है कि "एरायन वायजो" (Airyana Vaejo) अर्थात् आर्य्यों का स्वर्ग-लोक एक ऐसे प्रदेश में था जहां वर्ष में एकही बार सूर्योदय होता था। इस स्वर्गलोक को बर्फ की वर्षा ने नाश कर दिया। इसलिए उसे छोड़कर आर्य लोग दक्षिण की ओर चले आये। वेद और अवेस्ता के कितने ही वचन इस बात की साक्षी देते हैं कि हिम-प्रलय के पहले मेरुप्रान्त में बहुत कम जाड़ा पड़ता था। वहां एक प्रकार का सदा वसन्त रहता था। स्पिट्जबर्गन के समान स्थानों में, जहाँ, इस समय नवम्बर से मार्च तक, सूर्य क्षितिज के नीचे रहता है, उस समय ऐसे लता-पत्र और घास-पात उगते थे जो आज कल न बहुत सर्द और न बहुत गर्म जल-वायु वाले देशो ही में होते हैं। इसके सिवा खगोल-विद्या-विषयक कुछ बातें ऐसी हैं जो मेरु-प्रदेश में एक विशेष रूप में पाई जाती हैं। इन