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अतीत-स्मृति
 

जब दशरथ जराजीर्णं हो गये और उन्होंने राम को युवराज करना चाहा तब उन्हें भी लोकमत का आश्रय लेना पड़ा था। उन्होंने अनेक नरपालों को बुलवाया; उनका यथेष्ट सत्कार किया; उनके पास बहुमूल्य वस्तुयें और अलङ्का्र आदि भेजे। उनका

यथायोग्य सम्मान करके उनसे वे मिले—


नानानगरवास्तव्यान् पृथग्जानपदानपि।
समानिनाय मेदिन्यः प्रधानात्पृथिवीपतीन्॥
ताम् वेश्मनानाभरणैर्यथाहै प्रतिपूजितान्।
ददीलंकृतो राजा...................॥

(वाल्मीकि)
 

इसके बाद दरबार किया गया। भांति भांति के आसनों पर सब राजे और रईस इस तरतीब से बिठाये गये कि सब के मुख

दशरथ को ओर रहें। वहां पर वहो महीपाल थे जो लोक-सम्मत थे, और जो वहांं आने योग्य थे—


ततः प्रविबिशु सर्वे राजानो लोकसम्मतः।
.................................................
अथ राजवितीर्णोषु विविधेस्वासनेषु च।
राजानमेवाभिमुखा निषेदुर्नियता नृपाः॥

(वाल्मीकि)
 

दरबार मे नगर के मुख्य निवासी और प्रजाजन भी थे। सब के सामने दशरश ने प्रस्ताव किया कि अब मैं वृद्ध हुआ हूँ। राम सुयोग्य हैं। मैं इसे युवराज किया चाहता हूँँ। यदि मेरी यह