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अतीत-स्मृति
 


अधिक प्राचीन प्रथा है। ओल्ड-टेस्टामेंट के समय में अग्नि-पूजा बन्द हो गई थी; पर ज़ेन्दावस्ता के समय में उसका खूब प्रचार था। इन प्रमाणों से सिद्ध है कि ओल्ड-टेस्टामेंट से ज़ेन्दावस्ता पुराना ग्रन्थ है।

बँगला संवत् १३०६ के ज्येष्ट की "भारती" नामक बँगला मासिक पत्रिका में भारती सम्पादिका श्रीमती सरलादेवी, बी॰ए॰, लिखित एक प्रबन्ध छपा है। उसका नाम है "हिन्दू और निगर"। उसमें लिखा है-"हिन्दू-शब्द संस्कृत-सिन्धु-शब्द से उत्पन्न नहीं है।.........ज़ेन्दावस्ता नामक पारसियों का पुराना, धर्मग्रन्थ वेदों के समय का है। उसमें हिन्दू-शब्द एक दफ़े आया है। हारोबेरेजेति (अल्बुर्ज़) पहाड़ के पास पहले पहल ऐर्य्यन-बयेजो (आर्य निवास) था। धीरे धीरे अहमंज़दाने (पारसियों के परमेश्वर ने) सोलह शहर बसाये। उनमें से पन्द्रहवें शहर का नाम हुआ "हप्तहिन्दव"। वेदों में इसी को "सप्तसिन्धव" कहते हैं। ज़ेन्दावस्ता में तीर-इयास्ते नामक एक पहाड़ के लिए भी, एक बार, 'हिन्दव' शब्द आया है। अनुमान होता है, यही 'हिन्दव' शब्द आज कल के हिन्दूकुश-पर्वत का पिता है।

"व्यवहार में न आने के कारण यह मूल अर्थ धीरे धीरे भूल गया। तब, बहुत दिनों के बाद, वैयाकरण लोगो ने "स्यन्द" धातु के आगे औणादिक "अ" प्रत्यय लगाकर, किसी तरह तोड़ मरोड़कर, समुद्रार्थ-बोधक सिन्धु-शब्द पैदा कर दिया। यह उनकी सिर्फ़ कारीगरी मात्र है"। इत्यादि।