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प्राचीन भारत में युद्ध-व्यवस्था
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था; शत्रु का कोई भी अंश सेना के पीछे से आक्रमण न कर सकता था।

जो नवीन अस्त्र या शस्त्र पहले-पहल आविष्कृत होता था उसे धर्म-युद्ध के नियमानुसार कोई भी युद्ध के काम में न ला सकता था। उसको काम में लाने के लिए दोनो पक्षों की स्वीकृति दरकार होती थी। दोनों पक्ष उस आयुध को काम में लाना जब अच्छी तरह जान लेते थे तभी उसका व्यवहार होता था। यही बात, किसी समय, यूरोप में भी थी। लोग नवीन शस्त्रास्त्रों को राक्षसी था दानवी समझते थे। इसलिए धनुष और गोली-गोले आदि वहाँ बहुत पीछे से, धीरे धोरे काम में लाये जाने लगे। पहले पहल यूरोप में, अप्रचलित शस्त्रास्त्रों को काम में लानेवाले सैनिक, लड़ाई के मैदान में, बिना दोनो पक्षो की स्वीकृत के नहीं आ सकते थे। पर अब तो थल-सुरंग और जल-सुरंग जैसे भयानक और नाशक यन्त्रों के प्रयोग की भी कोई रोक टोक नहीं। सन् १९०७ ईसवी मे, हेग की द्वितीय शान्ति-सभा ने, अपने तृतीय अधिवेशन तक के लिए इस विषय में एक नियम बना दिया था। इस नियम में हवाई जहाजों द्वारा गोले या वम फेंकने की, विशेष कर अरक्षित स्थानो पर, मनाही है। पर वर्तमान घोर संग्राम में जर्मनी ने इस नियम को तोड़ डाला है । अव हवाई जहाजो से यथेच्छ धड़ाधड़ गोले बरसाये जा रहे हैं। यह कोई आश्चर्य्य कारक और नई बात नही। हमारे यहाँ भी राक्षस लोग धर्म-युद्ध का तिरस्कार करके कभी कभी कूट-युद्ध करने लगते थे। उन्हें