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सोम-याग
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सोमयाग का देवता अग्नि है। इसीलिए उसका नाम अग्निष्टोम पड़ा (अग्निस्तोमः स्तवन इत्यामिष्टोमः) अग्नि का स्तोत्र गाना और उसकी पूजा करना ही उसका प्रधान उद्देश था। उसके साथ साथ और देवताओं की भी पूजा की जाती थी।

इस यज्ञ को करने के लिए सुपटु ब्राह्मण ही नियुक्त होते थे। पहले कोई अच्छी भूमि बंद कर वहीं यज्ञ होता था। सव कही न होता था। पोछे, धीरे धीरे, यह विधि प्रचलित हुई कि जहाँ वेदज्ञ ब्राह्मण पाये जाये वही स्थान यज्ञ के योग्य है।

स्थान का निश्चय हो जाने पर वहाँ एक मण्डप बनाया जाता था। वह चारों ओर समान होता था और हर तरफ १२ अरन्ति होता था। (कुहनी से कनिष्ठा अंगुली की जड़ तक का नाम आरत्नि होता है) इस मण्डप को प्राचीनवंश कहते थे। इसके चार द्वार होते थे। इस लिए इसको चतुर-मण्डप भी कहते थे। यह चारों ओर तृण से छा दिया जाता था।

प्राचीन-वंश-मण्डप बन जाने और यज्ञ-सम्बन्धी सब सामग्री एकत्र हो जाने पर ऋत्विक्, अर्थात् पुरोहित, यजमान को उस गृह में ले जाकर उसे दीक्षा देते थे।

सब यज्ञो में ऋत्विक लोगो की संख्या एक सो न होती थी। अग्न्याधान-याग में ४, अग्निहोत्र में १, दर्श-पौर्णमास मे ४, चतुर्मास मे ५, पशुबन्ध मे और सोमयाग मे १३ ऋत्विक दरकार होते थे।

इन १६ ऋत्विकों के भिन्न भिन्न नाम और काम थे। नाम,