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शूद्र कहलाये हम,
किन्तु श्रीविवेक और
आप-ऐसे कृतियों ने
धन्य हमें कर दिया।
ब्राह्मणों की ही तरह
हम भी सिर उठाकर
रहते हैं समाज में,
एक ही फल के भागी—
भोगी स्वाच्छन्द्य के।"
स्वामीजी मौन थे
स्तुति को दबाते हुए
जो थी एकाङ्गिणी।
सजग हुये ब्रह्मवर्ग,
स्पर्धा से उद्धत-सिर,
देखते ही स्वामीजी
समझे वह मनोभाव
क्षोभ भरनेवाला,
बोले स्नेह-कण्ठ से—