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उठी नहीं तलवार
देश की पराजय को,
बहो है सहस्रधार
मुक्ति यहाँ से, क्षय को
मृत्यु के जड़त्व के;
नहीं यहाँ थे गुलाम,
देश यह वहीं जहाँ
जीते गये क्रोध-काम;
भाव उठा लो वही,
जीवन का वार एक
और सहो तो सही।
सवल यो नीति से,
पढ़ो दान विश्व के
दिये जो ज्ञान-रीति के,
खुले हुए विश्व को
समझो तुम देखकर,
प्रतिमा विशेषकर