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"जो हारा पहले से क्यों दरवाज़ा खोले?"
मध्यस्थ उभयभारती हुई, शास्त्रालोचन
शंकर से हुआ प्रखर जिसमें, हारे मण्डन।
फिर चले छोड़कर गृह त्याग के विजयध्वज से,
मिल गये ज्ञान की आँखों से नभ से-रज से।

आ रहा याद वह वेदों का उद्धार, ख्यात
वह श्रुतिधरता, ज्ञान की शिखा वह अनिर्वात
निष्कम्प, भाष्य प्रस्थानत्रयी पर, संस्थापन
भारत के चारों ओर मठों का, संज्ञापन,
बौद्धों के दल का जीते ही वह दाहकरण,
जलकर तुषाग्नि में अपना प्रायश्चित्त-धरण
शंकर के शिष्यों का। मुझको आ रही याद
वह अस्थिरता जनता के जीवन की, विषाद
वह बढ़ा पण्डितों में जैसे शंकर मत से—
अद्वैत-दार्शानकता से हुए यथा हत से—
प्रच्छन्न बौद्ध ज्यों कहने लगे, वेदविधि के
कर्मकाण्ड के लोप से दुखा जन वे निधि के