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तपा, चली लू, लपटें उठने लगीं, अमङ्गल
फैला, आहों से लोगों की पृथ्वी छाई,
बढ़ा त्रास, फिर अपलापों की बारी आई,
रहित वुद्धि से लोग असंयत अनर्गल,
किन्तु नहीं तुम हिले, तुम्हारे उमड़े बादल,
गरजे सारा गगन घेर बिजली कड़काकर,
काँपे वे कापुरुष सभी अपने अपने घर,
धारा झरझर झरी, घटा फिर फिर घिरआई,
सौ सौ छन्दों में फूटी रागिनी सुहाई
सावन की, निर्बल दवके दल-के-दल वे जन,
अपने घर में करते भला बुरा आलोचन;
भरी तुम्हारी धरा हरित साड़ी पहने ज्यों
युवती देख रही हो नभ को नहीं जहाँ क्यों ।
आई शरत तुम्हारी, आयत-पङ्कज-नयना,
हरसिंगार के पहन हार ज्योतिर्मय--अयना;
एक बार फिर से लोगों को सिन्धुस्नान कर
निकला हुआ दिखा काशी में इन्दु मनोहर--