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मैं देखता देश-देशान्तर;
तब यह जग आहें भर-भर
कहता है, 'आओ, जलधघर!'
गरज-गरज बिजली कड़काकर
(जब कहते हो, जाओ, प्यारे,)
लाख-लाख बूँदों से मैं टूटता गगन से
जैसे तारे।
मिट जाती है जलन
मगर मैं आ जाता हूँ फिर मिट्टी पर,
पर तुम मुझे! उठाते हो फिर
छिपे कलो के दिल के अन्दर।
जड़ से चढ़कर,
तने-शाख-डणठल से होकर,
रहता हूँ अविकच कलिका के
जीवन में मैं जीवन खोकर।
जब वह खिलती,
आँखे लड़ा-लड़ाकर मिलती,