पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१६७

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महतीसर- पनी न फुछ इस पल चित्त की, असर गया गर्व मठ जो था । असीम चिन्ता पिता रही है. कटीली झाडी लगाय, रोई॥ पाणिक वदना प्रसयह मुखवस, समझ लिया शून्य में पसरा । न अपना कोई पराया कोई, न भाया काह न पाय कोई ॥ .५ (घुग्ने र हाथ जोड़ती है। पुट का प्रवेश ) (सिर पर आप रखते हैं) गौतम--"करुणे ! तेरी अय हो ।” मागधी-(प्रौख खोल कर, और पैर पकड़कर)"प्रमु आगय । इस प्यासे हदय की कृष्णा मिटाने को अमृत स्रोत ने अपनी गति परिवर्तन किया। इस मरु देश में पदार्पण किया ।" गौवम-"मागधी । तुम्हें शान्ति मिलेगी।जय तक तुम्हारा मदय उस विशाला में था, तभी वफ यह विद्यम्बना थी। मागन्धी-"प्रभु । मैं अभागिनी नारी । फेयक्ष उस अवज्ञा की चोट से बहुत दिन भटकती रही। मुझे रूप का गर्व पहुत ऊँथे घड़ा ले गया था, और सवने ही नीचे पटका ___ गौतम-"तणिफ विश्व का यह फौतुफ है देखी । भव सुम पति से सपे हुए हेम की सरह शुद्ध हो गई हो । विश्व के कल्याण में अग्रसर हो । असख्य दुःस्त्री जीवों को हमारी सेवा की आपश्यकता है. इस दुख समुद्र में फूद पको। यदि एक भी रोवे हुए हदय को तुम ने हँसा दिया वो सहनों स्वर्ग सुम्हारे अन्दर में विकसित होंगे। फिर सुमको पर-स्व-कासरसा मेंही भानन्द गिलेगा। विश्व मैत्री हो जायगी-विश्व भर अपना फुटुम्य विस्थाई पड़ेगा। उठो, असल्य पाहें तुम्हारे सद्योग से भट्टहास में परिणत हो सफदी है"