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प्राक्कयन।
 

दृष्टि मुझपर न पड़ती—पवन के किसी शहर को सुरभित कर के धीरे से उस पाले में चू पड़ता—तो इतना भीषण चीत्कार इस विश्व में न मचता।"

"चुप। यदि मेरा नाम न जानते हो तो "मनुष्य" कह कर पुकारो। यह भयानक सम्बोधन (सम्राट) मुझे न चाहिये।"

इतना ही नहीं, उसके जीवन भर में मानवता ओतप्रोत है, और उसका पुत्र क्रूर अजातशत्रु मी अन्त को इसके आगे सिर नवाता है।

इसी तरह 'प्रसाद' के लोकोत्तर-चरित पात्रों को भी हम इसी लिए श्रद्धापूर्वक सिर नवाते हैं कि उनमें मानवता का पूर्ण विकास है। उनके युद्ध इसलिए युद्ध है—इसलिए अवतार हैं—कि वे मानवता के आदर्शो की पूर्ण मूर्ति हैं। यह नहीं कि, ये अवतार हैं, अतः उनमें इन आदर्शो की पूर्णता उपस्थित हुई है।

कवि की इस प्रतिमा पर बहुत कुछ कहा जा सकता है लेकिन हम यही चाहते हैं कि 'अजातशत्रु' पढ़ कर पाठक हमारी समीक्षा की जाँच करें।

हाँ, इस नोट के समाप्त करने के पहिले एक बात और कहनी है—

भारतवर्ष की किसी भी भाषा में लिखे जाने वाले नाटकों में, उनके लेखक घटनाकाल के रहन सहन, चाल व्यवहार की ओर तनिक भी ध्यान नहीं देते। उनके पात्रों के नाम पर वो ऐतिहा