अजातशत्रु । दृश्य आठवा। स्थान-श्रावस्ती का एक उपयन ।। (शैलेन्द्र पैठा है, और रयामा सोई हुई है) शैलेन्द्र-(स्वगत ) "काशी के उस सफीर्ण भवन में छिपकर रहते रहते चिस घबरा गया था। समुद्रदत्त के मारे जाने का मैं हो कारण था, इस लिये प्रकाश्य रूप से अजातशत्रु से मैं मिलकर फोई कार्य भी नहीं कर सकता था। इस पामरी नारी की गोद में मुंह छिपा कर फितना दिन बिताऊँ १ हमारे भावी कार्यों में अब यह विघ्न स्वरूप हो रही है। यह प्रेम दिखाकर मेरी म्वतन्त्रता हरण कर रही है। भष नहीं, मैं इस गर्न में अब नहीं गिरा रहूँगा । कर्मपथ के कोमल और मनोहरफटकों को फठोरता से- निर्दयता से इटाना ही पड़ेगा। तष, आज से अच्छा समय कहाँ- (श्यामा सो भयानक स्वप्न देख रही है,श्य में पोक कर उठती १) श्यामा-"शैलेन्द्र ! शैलेन्द्र-"क्यों प्रिये ! श्यामा-"प्यास लगी है।" शैलेन्द्र-"क्या पियोगी ?" श्यामा- 'अल I शैलेन्द्र- प्रिये। अन तो नहीं है। यह शीतल पेया है पी लो!"
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