और सन्देह-वाद की पुष्टि होगी। और, चरित्र-गठन को उपकरण देने से, तथा मानव-समाज के ज्ञान-साधन में सहायक होने से—जो नाटक का उद्देश नहीं, तो निर्देश अवश्य है—अन्ततः वचित ही रहेंगे।
वाह्मद्वन्द्व का—जगत् का—हमारे जीवन से विरोष सानिम्य है। इसी महानाटक से हम अपने चरित्र के लिए उपकरण ग्रहण करते हैं, आदर्श बनाते हैं, अनुकरण करते हैं। अतः जो चरित्र मानवता की साधारण गति के समीप होगा वही उसे विशेष शिक्षा देगा। साथही विशेष विनोद की सामग्री जुटावेगा। जो दूर है वह केवल कौतुक और आश्चर्य ही का उद्दीपन करेगा। वह प्रबल प्रतिघात तथा वृत्तियों को विपरीत धक्के खिलाकर उत्तेजित करके अथवा, बलवसी वासनाओं को दुर्दान्त मानवरूप में अति चित्रण करके समाज में कुतूहल उपजावेगा। उसकी चंचलता बढ़ावेगा और उसमें क्रान्ति करा देगा। ऐसे ही नाटक चाहे वे रचना में प्रसादान्त क्यों न हों, मानवता के लिए, परिणाम में विपादान्त होते हैं।
किन्तु जहाँ वासनाओं का चरित्र के साथ उत्थान और पतन सथा संघर्ष होगा, साथ ही उत्कृष्ट वासनाओं का प्रारम्भ होकर शान्त हृदय में अवसान होगा, वह नाटक मरणन्त भले ही हो किन्तु है मानवता के लिए प्रसादान्त। 'प्रसाद' जी के नाटकों में एक यह भी मुख्य विशेषता है।
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