पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१०९

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मझदूसरा। ++++ आनन्द-"महिमामयी ! अपराध क्षमा हो । आज हमें विश्वास हुआ कि केवल मगवा लेने से ही धर्म पर एकाधिकार नहीं हो जाता यह सब चित्त शुद्धि स मिलता है । __मल्लिका-"पतितपावन की अमोप पाणी ने रश्यों फी. नश्वरता फी घोपणा की है। मुझे बहु, मोह की दुर्वलसा सी. विसाई पड़ती है। उस शासन से कमी विद्रोह न करूंगी, वही मानव का पवित्र अधिकार है । शान्तिदायक धैर्य का साधन है। जीवन का विभाम है (पैर पकड़ती है) महापुरुष ! भाशीर्वाद दीजिये कि में इससे विचलित न हो। सारिपुत्र-"ठो देवी । उठो। तुम्हें मैं क्या उपदेश फरूं १ शुम्हारा परिन धैर्य का कर्त्तव्य का-भादर्श है। तुम्हें अखण्ड शान्ति है। तुम जानती हो कि तुम्हारा शत्रु कौन है-तव मी विश्वमैत्री के अनुरोध से, उससे केवल उदासी ही न रहो, प्रत्युस दिप भी न रनो। (महारान प्रसेममित का प्रवेश) प्रसेन०-"महास्थविर ! मैं अभिवादन करता हूँ। मलिका देवी-मैं क्षमा माँगने आया है।" मक्षिका-"स्वागत, महाराज ! जमा फिस पास की ?" प्रसेन०-"मही-मैन अपराध किया है। सेनापति बन्घुल फे प्रति मेरा देय शुर नहीं था-मलिये, उनकी इस्या का पाप मुझे भी लगता है।