पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१०५

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भर दूसरा। समुद्रदत्त-"भला यह फैसी पात-सुन्दरी श्यामा। तुम मेरी इसी पढ़ाती हो । तुम्हारे लिये यह प्राण प्रस्तुत है । यात इतनी है कि वह मुझे पहचानता है - श्यामा-"नहीं, यह सो मेरी पहिली पास आप को माननी ही होगी। और इतना योम मुझ पर न पीजिये कि मैत्री में चतुरवा की गन्ध पाने लगे। हम लोगों को एक दूसरे पर शफा फरने का अवकाश मिले । मैं आपका पेश पदल देती हूँ।" समुद्रवात-"अच्छा प्रिये । ऐसा ही होगा। मेरा वेश परिवर तन करा दो। (श्यामा पेय परसती है और समुवस्त को काला पनाती है)। (समुददत्त मोहरों की पैनी कर प्रकाता इमा माता है) श्यामा-मामो पलि के बकरे, जामी। फिर न माना । मेरा शैलेन्द्र । मेरा प्यारा शैलेन्द्र ।। "तुम्हारी मोहनी पपि पर निधापर प्राण है मेरे । .. + मसिल भूलोक पलिहारी मधुर मुमुक्यान पर तेरे ॥" - -- पट परिवर्सन ।