पृष्ठ:अजातशत्रु.djvu/१०२

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भजातशत्र। 'पिंजड़े में उसफा गान क्रन्दन ही विदित होता है। मैं उसी श्यामा की तरह जो स्वतन्त्र है, राजमहल की परतन्त्रता से बाहर आई ।। हँसूंगी और हँसाऊँगी, रोऊँगी और रुजाऊँगी फूल की तय आई हूँ परिमल की तरह चली जाऊँगी। स्वप्न की चन्द्रिका में मलयानिल की सेजपर स्पेलूँगी । फूलों की धूल से अन्यग बनाऊँगी । चाहे उसमें कितनी ही कलियों क्यों न तोड़नी पड़ें। अनाहार से चाहे कितनो ही का फूलों के यिना प्राण जाय, मुझे कुछ चिन्ता नहीं । कुम्हलाफर, फूल को फुचन देने में ही मुझे सुख है ।” (समुद्रदत्त का प्रवेश) श्यामा-(खड़ी होकर ) "चित्त सावधान हुधा, कोई का सो नहीं हुआ। दासियाँ दुर्षिनीस होती हैं, तमा कीजियेगा।" • 'समुद्र वृत्त-"सुन्दरियों की तुम महारानी हो और तुम चाम्सब में उसी तरह रहती भी हो। तब जैमा गृहस्थ होगा, वैसे आसिभ्य फी भी सम्भावना है । बड़ा सुम्य मिला, वृदय शीतल हो गया " .. श्यामा-"भाप तो मेरी प्रशसी फर फे मुझे वार वार लज्जित करते हैं । ___ समुद्रवस-"सुन्दरी 1,मैं कह सो नहीं सकता किन्तु मैं बिना मूल्य का धाम हैं। अनुप्रड फर कोमल फण्ठ मे कुछ मुनावो ।” - - श्यामा- "जैसी आज्ञा " - - - a - , • • -5(दभित २,पाप प्राता)