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अजातशत्रु ।
 

हाँ, वह समय दूर नहीं है जब 'विशाख' और 'अजातशत्रु' के आदर्श पर हिन्दी में धड़ाधड़ नाटक निकलने लगेंगे। परन्तु वे अनुकरण मात्र होंगे। 'प्रसाद' जी की कृतियों के निराले पन पर उनका कोई असर न पड़ेगा।

सम्भव है कि हमारा कथन पहुतों को व्याजस्तुति मात्र जान पढ़े, पर समय इन पंक्तियाॆ की सत्यता सापित करेगा । अस्तु, हम प्रकृत विषय मे अलग हुए जा रहे हैं—

बग-साहित्य-प्रेमियों के एक दल द्वारा अन्यन्व समाहत नाट्य कार द्विजेन्द्रवाबू का कथन है—"जिस नाटक में अन्तर्न्द्व दिखाया जाय वही नाटक उच्च श्रेणी का होता है—अन्तर्विरोध के रहे बिना उच्चश्रेणी का नाटक बन ही नहीं सकता। यह सिद्धान्त किसी अश में ठीक है, क्योंकि ऐसा होने से काव्य में प्रशसित लोकोत्तर चमत्कार बढ़ता है। किन्तु, यही सिद्धान्त चरम है, ऐसा मानना कठिन है, क्योंकि अन्धर्विरोध से वाह्यद्वन्द्र, जगत, का उद्भव है और इस वाह्यद्वन्द्र का काल-कम से शीघ्र अवसान होता है—इसी का चित्रण कवि के अमीष्ठ को शीघ्र समीप ने आता है।

अन्तर्द्वन्द्र मय अपूर्णता में घटना का अन्त कर देना, उसे कल्पना का क्षेत्र बना देना, छोटी छोटी घटनामों पर अवलम्बित आख्यायिकाऒ का काम है। यदि नाटक अपने ऊपर यह मार उठावें वो उनसे वृतियों को कॆवल चञ्चलता की शिक्षा मिलेगी,