( ५४ ) इन दोनों स्थान-नामों से यह सूचित होता है कि इन पर किसी समय बघेलखंड के नाग राजाओं का अधिकार था और इसी प्रकार भारहुत और संभवतः भर देउल' नामों से भी यही सूचित होता है कि ये भार-शिव राजाओं से संबंध रखते हैं। कंतित है भी ऐसे स्थान पर बसा हुआ कि भार-शिवों के इतिहास के साथ उसका संबंध बहुत ही उपयुक्त रूप से बैठ जाता है; क्योंकि भार-शिव राजा बघेलखंड से चलकर गंगा-तट पर पहुँचे थे। विष्णुपुराण में कहा है- नव-नागा पद्मावत्यां कांतिपुर्याम् मथुरायां । इस संबंध में एक यह बात भी महत्त्व की है कि अन्यान्य पुराणों में कांतिपुरी का नाम नहीं दिया है। इसका कारण यही हो सकता है कि भव-नाग का वंश जाकर वाकाटक वंश में मिल १. इस मदिर की छत चिपटी थी और इसके बरामदे पर ढालुएँ पत्थर लगे थे। पहले इस पर नुकीली दीवारगीर या ब्रैकेट था जो टूट गया था और फिर से बनाफर ठीक किया गया है। कनिंघम ने इसका जो चित्र दिया है, वह फिर से बने हुए ब्रैकेट का है। इस प्रकार के ब्रैकेट मध्ययुग की वास्तुकला में प्रायः सभी जगह पाए जाते हैं; पर निश्चित रूप से कोई यह नहीं कह सकता कि कितने प्राचीन काल से इसकी प्रथा चली आती थी। वहाँ जो बड़ी ईटे तथा इसी प्रकार की और कई चीजें पाई जाती है, वे अवश्य ही बहुत पहले की हैं । २. यूल का मत है कि टालेमी ने जिसे किंडिया कहा है, वह श्राजकल का मिरजापुर ही है। देखो मैक्रिडल का Ptolemy, पृ० १३४ ।
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