इसके अक्षर ( ३७ ) वृक्ष ताड़ का है। उसके आस-पास सजावट के लिये कुछ और भी चिह्न बने हैं। और ये चिह्न भी सिकों पर बने हुए चिह्नों के समान ही हैं। पर अभी तक यह पता नहीं चला है कि ये चिह्न किस बात के सूचक हैं। ये राजकीय चिह्न हैं; और इसी कारण मैं समझता हूँ कि ये राज्य अथवा राजवंश की स्थापना के सूचक हैं। यह शिलालेख स्वामिन् वीरसेन के राज्य-काल के तेरहवें वर्ष का है (स्वामिन् वीरसेन संवत्सरे १०, ३)। इसका शेष अंश इतना टूटा-फूटा है कि उससे यह पता नहीं चल सकता कि इस लेख के अंकित करने का उद्देश्य क्या था। इस पर ग्रीष्म ऋतु के चौथे पक्ष की आठवीं तिथि अंकित है। वैसे ही हैं, जैसे अहिच्छत्रवाले सिक्के पर के अच्छर हैं। इसके अतिरिक्त और सभी बातों में वे अक्षर आदि हुविष्क और वासुदेव के उन शिलालेखों के अक्षरो से ठीक मिलते हैं जो मथुरा में पाए गए थे और जो डा. बुहलर द्वारा प्रकाशित Epigraphia Indica के पहले और दूसरे खंडों में दिए हैं। उदाहरण के लिये, इस शिलालेख को उस शिलालेख से मिलाइए, जो कुशन संवत् ६० का है और जो उक्त ग्रंथ के दूसरे खंड में पृ० २०५ के सामने- वाले प्लेट पर दिया है। दोनों में ही स, क और न की खड़ी पाइयों का ऊपरी भाग अपेक्षाकृत मोटा है। यद्यपि जानखट-बाले शिलालेख में का इ कुछ पुराने ढंग का है, पर फिर भी वह कुशन संवत् ६० के उक्त शिलालेख के इ से बहुत कुछ मिलता-जुलता है। इस शिलालेख में जो मात्राएँ हैं, वे कुछ झुकी हुई सी हैं और वैसी ही हैं, जैसी कुशन संवत ४ के मथुरावाले शिलालेख नं० ११ की तीसरी पंक्ति में सह, दासेन और दानम् शब्दों में हैं: अथवा कुशन संवत् १८ के शिलालेख नं०१३ की तीसरी पंक्ति में हैं अथवा दूसरी पंक्ति के 'गणातो' में और साथ ही दूसरे शब्दों
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