( ३५ ) रैप्सन ने सन १९०० के जनरल रायल एशियाटिक सोसाइटी में, पृष्ठ १७ के सामनेवाले प्लेट में, दिया है जिसका क्रमांक १५ है। उसमें एक छत्रयुक्त सिंहासन पर एक बैठी हुई स्त्री की मूर्ति है और सिंहासन के नीचे वाले भाग से नाग उठकर छत्र तक गया है; और ऐसा जान पड़ता है कि वह नाग छत्र को धारण किए हुए है और सिंहासन की रक्षा कर रहा है। यह मूर्ति गंगा की है, क्योंकि इसके दाहिने हाथ में एक घड़ा है। सिक्के के दूसरे या पिछले भाग में ताड़ का एक वृक्ष है जिसके दोनों ओर उसी तरह के कुछ चिह्न हैं । बनावट की दृष्टि में यह सिक्का भी वैसा ही है, जैसे नव के और सिक्के हैं; और इसमें राजा की उपाधि की पूर्ति करने के लिये नाग की मृति दी गई है। इस पर समय भी उसी प्रकार दिया गया है, जिस प्रकार नव के और सिक्कों पर दिया गया है। नाग तो वंश का सूचक है और ताड़ का वृक्ष राजकीय चिह्न है। कुछ सिक्कों में राजसिंहासन पर के छत्र तक जो नाग बना है, उसका संभवतः दोहरा अर्थ और महत्त्व है। वह नागवंश का सूचक तो है ही, पर साथ ही संभवतः वह आंह- छत्र का भी सूचक है; अर्थात् वह यह सूचित करता है कि यह सिक्का अहिच्छत्र की टकसाल में ढला हुआ है। इस राजा का पद्मावती की टकसाल का ढला हुआ भी एक सिका है। जिस पर लिखा है-महाराज व(वि); और साथ ही उस पर मार का एक १. देखो यहाँ दिया हुया प्लेट नं० १ । [ उस समय के जिस ढले हुए सिक्के का चित्र प्लेट २३ क्रमांक १ में है, उसमें की खड़ी हुई मूचि मुझे गंगा की जान पड़ती है।] २ कनिंघम कृत Coins of Medioval India, प्लेट २, चित्र सं० १३ और १४ ।
पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/६१
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