( २ ) विशेष ध्यान रखने की बात यह है कि वह पहले भार-शिव के नाती के रूप में और तब वाकाटक की हैसियत से राज्य का उत्तराधिकारी हुआ था, और वह समुद्रगुप्त की तरह उत्तराधिकारी नहीं हुआ था जो शिलालेखों में पहले तो गुप्त राजा कहलाता है और तब लिच्छवियों का नाती। वाकाटकों के एक ताम्रलेख (बालाघाट, खंड ६ पृ० २७० ) में रुद्रसेन प्रथम स्पष्ट रूप से भार-शिव महाराज-भारशिवानाम् महाराज श्रीरुद्रसेनस्य-कहा गया है । इस प्रकार इस विषय में विष्णु पुराण का वाकाटक वंश के लेखों से पूरा पूरा समर्थन होता है। फिर वाकाटक लेखों में रुद्रसेन प्रथम की मृत्यु के समय वाकाटक काल का एक प्रकार से अंत कर दिया जाता है और वह दूसरे वाकाटक काल से पृथक कर दिया जाता है जो पृथिवीपेण प्रथम और उसके पुत्र तथा उत्तराधिकारी से आरंभ होता है। जैसा कि हम आगे चलकर बतलावेंगे, इसका कारण यह है कि जब समुद्रगुप्त के द्वारा रुद्रसेन परास्त होकर मारा गया, तब वाकाटकों के सम्राट पद का अंत हो गया ( देखो ६५२ की पाद-टिप्पणी)। समुद्रगुप्त ने इसे भी उसी प्रकार रुद्रदेव कहा है, जिस प्रकार नेपालवाले लेखों में वसंतसेन को वसंतदेव कहा गया है। पृथिवीषेण प्रथम के राज्यारोहण के समय इस वंश को राज्य करते हुए पूरे सौ वर्ष हो गए थे और इसीलिये लेखों में उस पहले काल का अंत कर दिया गया है जो स्वतंत्रता का काल था। यथा-वर्षशत "भारशिवानांमहाराज श्री भवनाग दौहित्रस्य गौतमीपुत्रस्य पुत्रस्य वाकाटकानां महाराज श्री रुद्रसेनस्य" । १. फ्लीट कृत Gupta Inscriptions की प्रस्तावना, पृष्ठ १८६-१६१।
पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/५३
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।