(३८७ ) और संस्कृति, देश में भी और विदेशों में भी दूर-दूर तक व्याप्त होनेवाली क्रियाशीलता का यह वातावरण देखकर हमारी आँखों में चकाचौंध पैदा हो जाती है और हम भार- शिव काल के उन अज्ञात कवियों, देशभक्तों और उपदेशकों को भूल जाते हैं, जिन्होंने वह बीज बोया था, जिसकी फसल वाकाटकों और गुप्तों ने काटी थी। भार-शिवों के सौ वर्ष हिंदू साम्राज्य-वाद के बीज बोये जाने का काल है। इस बीज-कालवाले आंदोलन के समय जो साहित्य प्रस्तुत हुआ था, उसका कुछ भी अवशिष्ट इस समय हमारे पास नहीं है। परंतु हम फल को देख- कर वृक्ष पहचान सकते हैं। उस अंधकार-युग ने ही आर्यावर्त और भारत को प्रकाशमय किया था। उस युग में जो आध्यात्मिक आंदोलन प्रारंभ हुआ था, उसने वैष्णव धर्म के वीरतापूर्ण अंग में प्रगाढ़ भक्ति का रूप धारण किया था। इस संप्रदाय के उपदेशक कौन थे ? हम नहीं जानते। परंतु हम इतना अवश्य कह सकते हैं कि इस संप्रदाय की मूल पुस्तक भगवद्गीता थी जो समुद्रगुप्त के शिलालेख में दोहराई गई है। इस संप्रदाय का सिद्धांत यह है कि विष्णु ही राजनीतिज्ञों और वीरों के रूप में इस पृथ्वी पर आते हैं और समाज की मर्यादा फिर से स्थापित करते हैं और धर्म तथा अपने जनों की रक्षा करते हैं। $ २१०. यह चित्र बहुत ही भव्य और आनंददायक है और यह मन को इस प्रकार अपनी ओर आकृष्ट कर लेता है कि वह समुद्रगुप्तवाले भारत के दृश्य की दूसरा पक्ष ओर से सहसा हटना ही नहीं चाहता। साम्राज्यवाद में शिक्षा पाए हुए आज-कल के इतिहासज्ञ को यह चित्र देखकर स्वभावतः आनंद होगा, क्योंकि
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