(३८४) पूरा पूरा लाभ उठाया था; और भार-शिवों ने जिस इतिहास का प्रारंभ किया था और वाकाटकों ने पालन-पोषण करके जिसकी वृद्धि की थी उसकी परंपरा को समुद्रगुप्त ने प्रचलित रखा था। इन्हीं भार-शिवों और वाकाटकों ने वह रास्ता तैयार किया था, जिस पर चलकर शाहानुशाही और शक अधिपति अयोध्या और पाटनिपुत्र तक आने और हिंदू राज्यसिंहासन के आगे सिर झुकाने के लिये बाध्य किए जाते थे। यह पुनरुद्धार का कार्य सन् २४८ ई० से पहले ही प्रारंभ हो चुका था । हिंदुओं ने पहले से ही कुशनों के सामाजिक अत्याचार और राजनीतिक शासन से अपने आपको मुक्त कर रखा था। उन्होंने यह समझकर पहले से ही बौद्ध-धर्म का परित्याग और अस्वीकार कर दिया था कि व हमारे समाज के लिये उपयुक्त नहीं है और लोगों को दुर्बल तथा निष्क्रिय बनानेवाला है। परंतु एक निर्मायक धर्म की स्थापना का काम समुद्रगुप्त के लिये बच रहा था और उसने उस धर्म का निर्माण विष्णु की भक्ति के रूप में किया था। भार-शिवों ने स्वतंत्र किए हुए भारत के लिये गंगा और यमुना को लक्षण या चिन्ह के रूप में ग्रहण किया था और उपयुक्त रूप से फनवाले नागों को इन देवियों की मूर्तियों के ऊपर स्थापित किया था; और इस प्रकार राजनीति की प्रतिकृति तक्षण कला में स्थापित की थी। गुप्तों ने भी इन्हीं चिन्हों या लक्षणों को ग्रहण कर लिया था; परंतु हाँ, उनके सिर पर से नागों को हटा दिया था। भार-शिवों और वाकाटकों के विकट और संहारक शिव के स्थान पर उन्होंने पालनकर्ता विष्णु को स्थापित किया था, जो अपने हाथ ऊपर उठाकर हिंदू-समाज को धारण करता है और ऐसी शक्ति के साथ धारण करता है जो कभी कम होना जानती ही नहीं । पहले हिंदू देवताओं के मंदिर केवल भव्य ही होते थे।
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