( ३८१) नीति ने ही पृथिवीपेण प्रथम को उसका घनिष्ठ मित्र और सहा. यक बना दिया था, जिसने कुंतल या कदंब राजा पर फिर से विजय प्राप्त की थी। इस कुंतल या कदंब राजा के कारण दक्षिण में समुद्रगुप्त का एकाधिकार और प्रभुत्व संकट में पड़ गया था; और कदाचित् इसीलिये उसे अपना अश्वमेध यज्ञ अथवा उसकी पुनरावृति स्थगित कर देनी पड़ी थी, जिसका उल्लेख प्रभावती गुप्ता ने किया है। उसकी औपनिवेशिक नीति और ताम्रलिप्ति वाले बंदरगाह को अपने हाथ में रखने के कारण अवश्य ही उसे बहुत अधिक आय हुआ करती होगी। उन दिनों चीन और इंडो- नेशिया के साथ भारत का बहुत अधिक व्यापार हुआ करता था और उस पूर्वी व्यापार का महत्त्व कदाचित् पश्चिमी व्यापार के महत्त्व से भी बढ़ा-चढ़ा था। समुद्रगुप्त भी और उसका पुत्र चंद्र- गुप्त भी दोनों अपनी समुद्री सीमाओं पर सदा बहुत जोर दिया करते थे और कहते थे कि जिस प्रकार हमारी उत्तरी सीमा हिम- वत् (तिब्बत ) है, उसी प्रकार बाकी तीनों दिशाओं की सीमाएँ समुद्र हैं। दोनों ही के शासन काल में प्रजा पर जहाँ तक हो सकता था, बहुत ही कम कर लगाया जाता था और फाहियान ने चंद्रगुप्त के शासन-काल के संबंध में इस बात का विशेष रूप से उल्लेख किया है। समुद्रगुप्त अपनी प्रजा के लिये सचमुच धनद था। लोगों के पास इतना अधिक धन हो गया था कि वह सहज में बड़े-बड़े चिकित्सालय स्थापित कर सकते थे और समुद्रगुप्त की स्थापित की हुई शांति के कारण ही चंद्रगुप्त अपने राज्य से प्राण- दंड की प्रथा उठा सका था। १. अनेक अश्वमेध-याजी लिच्छवि-दोहित्रः । (एपिग्राफिया इंडिका, १५, ४१)
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