(३८०) वंश के द्वारा संपर्क बना रखा था, क्योंकि वाकाटक वंश फिर से अधिकारारूढ़ कर दिया गया था, यद्यपि इलाहाबाद वाले शिला- लेख में वाकाटक देश को मध्य-प्रदेश का एक अंश माना गया है और प्रजातंत्रों या गणतंत्रों का इस प्रकार सिंहावलोकन किया गया है कि जान पड़ता है कि वह सिंहावलोकन करने वाला ग्वालियर अथवा एरन में बैठा हुआ था। इलाहाबाद वाले शिला- लेख की २३ वीं पंक्ति में उसने कहा है कि मैंने पुराने राजवंशों को फिर से अधिकारारूढ़ कर दिया है, और २६ वीं पंक्ति में वह कहता है कि जिन राजाओं पर मैंने अपने बाहुबल से विजय प्राप्त की थी, उनकी संपत्ति मेरे कर्मचारी उन्हें लौटा रहे हैं। इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि उन राजाओं में पृथिवीषेण प्रथम भी था। उसके बाद वाले दूसरे शासन-काल में भी दक्षिण और दीपस्थ भारत से बराबर बहुत सा सोना उत्तरी भारत में आया करता था। एरन वाले शिलालेख में कहा गया है कि समुद्रगुप्त सोने के सिके दान करने में राम और पृथु से भी बढ़ गया था। यदि यही बात हो तो इसमें कुछ भी संदेह नहीं कि उसके पुत्र ने अपनी प्रजा में इतना अधिक सोना बाँटा था, जितना उससे पहले और कभी किसी ने नहीं बाँटा था। इस बात में कुछ भी अतिशयोक्ति नहीं है। चंद्रगुप्त द्वितीय की कन्या ने लिखा है कि अरबों (गुप्त) मोहरें दान की गई थीं और उसके इस कथन का समर्थन युआन च्यांग ने भी किया है । अमोघवर्प ने अपने अभिलेख में यह स्वीकृत किया है कि गुप्त राजा कलियुग का सबसे बड़ा दाता और दानी था । यह बात समुद्रगुप्त की उत्तम दूरदर्शिता के कारण ही हो सकी थी। उसकी शांति और बंधुत्व स्थापित करने वाली १. पूनावाले प्लेट, एपिग्राफिया इंडिका, खंड १५, पृ० ४१ ।
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