( ३७७ ) का परित्याग कर दिया था और अपने नाम के साथ राजकीय उपाधि "वर्मा" का प्रयोग करना आरंभ कर दिया था । वास्तव में वही कदंब राज्य का संस्थापक था और वह कदंब राज्य उसके समय में बहुत अधिक शक्तिशाली हो गया था। परंतु कदंब राज्य की वह बढ़ी-चढ़ी शक्ति कुछ ही वर्षों तक रह सकी थी। जब पल्लव-शक्ति समुद्रगुप्त के हाथ से पराजित हो गई थी, तब उसे कंग ने दबाने का प्रयत्न किया था। पुराणों में कान और कनक नाम से कंग का पूरा पूरा वर्णन मिलता है (देखो १२८- १२६ )। पल्लव लोग वाकाटक सम्राट के साम्राज्य के दक्षिणी भाग में थे। वे लोग वाकाटक चक्रवती के अधीनस्थ महाराज या गवर्नर थे। जान पड़ता है कि पल्लव लोग वाकाटक सम्राट की ओर से राज्य पर शासन करते थे और इस त्रैराज्य में तीन तामिल राज्य थे, जिनके नेता चोलों पर उन्होंने वस्तुतः विजय प्राप्त की थी। स्त्री-राज्य, मूषिक और भोजक ये तीनों राज्य पर- स्पर संबद्ध थे ओर कंगवर्मन् इन्हीं तीनों का शासक बन गया था और विष्णुपुराण के अनुसार राज्य पर भी उसका शासन थाः अर्थात् उस समय के लिये वह पल्लवों को दबाकर समस्त दक्षिण का स्वामी बन गया था । केवल पल्लवों का प्रदेश ही उसके शासनाधिकार के बाहर था । जान पड़ता है कि पल्लवों के पराजित होने के उपरांत कंग ने अपने पूर्वजों का दक्षिणी राज्य फिर से स्थापित करने का प्रयत्न किया था और वह कहता था कि समुद्रगुप्त को सारे भारत का सम्राट होने का कोई अधिकार नहीं है। परंतु वह पृथिवीषेण वाकाटक के द्वारा परास्त हुआ था और उसे राज-सिंहासन का परित्याग करना पड़ा था (६ १२७ और उसके आगे ) । कंग के उपरांत कदंब लोग राजनीतिक दृष्टि से वाकाटक राज्य के साथ संबद्ध रहे जो कदंब राज्य के कुंतल-
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