( ३६४) ही पल्लवों के हाथ से कांचो निकल गई थी; ओर यह कहीं नहीं कहा गया है कि उसने कोई विजय प्राप्त की थी; परंतु फिर भी यह कहा गया है कि वह बहुत वीर था। लेकिन उसके नाम पर उसके किसी वंशज का फिर कभी नाम नहीं रखा गया था। जान पड़ता है कि वह ( वीरवर्मन् ) रणक्षेत्र में चोल शत्रुओं के हाथ से मारा गया था। शिवस्कंदवर्मन् के मरते ही चोलों को बहुत अच्छा अवसर मिल गया होगा और उन्होंने आक्रमण कर दिया होगा। वीरवर्मन ने साल दो साल से अधिक राज्य न किया होगा। वीरवर्मन ने प्राचीन सनातनी प्रथा के अनुसार अपने प्र-पिता वोरकोर्च के नाम पर अपना नाम रखा था। परंतु जैसा कि अभी ऊपर बतलाया जा चुका है, यह नाम इसके बाद फिर कभी दोहराया नहीं गया था। वीरवर्मन् ने कांची अपने हाथ से गवाई थी और वह चोलों के द्वारा परास्त भी हुआ था; और इसीलिये "वीर" शब्द अशुभ और राजनीतिक दुर्भाग्य का सूचक माना जाता था और इसीलिये इस वंश ने इस नाम का ही परित्याग कर दिया था। स्कंदवर्मन द्वितीय दोबारा पल्लव शक्ति का संस्थापक बना था और इस बार पल्लव शक्ति ने स्थायी रूप से कांची में अपना केंद्र स्थापित कर लिया था । हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि स्कंदवर्मन द्वितीय के समय में वाकाटक वंश का नेतृत्व प्रवरसेन प्रथम के हाथ में था, जिसके समय में वाकाटक वंश अपनी उन्नति की चरम सीमा तक जा पहुँचा था, और वह बिंदु इतना उच्च था कि उस ऊँचाई तक उससे पहले कोई साम्राज्य-भोगी वंश नहीं पहुंचा था । जान पड़ता है कि स्कंदवर्मन द्वितीय को वाकाटक सम्राट् से सहायता मिली थी। उसने "विजय" की उपाधि धारण की थी और वह उसका पात्र भी था। उसका शासन दीर्घ-काल-व्यापी था और
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