पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/३६५

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

(३३७) सनातनी साहित्य में मिली थी। पल्लवों की जाति और मूल आदि निर्णय करने के लिये भी हमें उसी प्रणाली का प्रयोग करना चाहिए । पल्लवों के रहस्य का उद्घाटन करनेवाली कुंजी पुराणों के विंध्यक इतिहास में बंद है। वह कुंजी इस प्रकार है-साम्राज्य- भोगी विध्यकों अर्थात् साम्राज्य-भोगी वाकाटकों की एक शाखा के लोग उस आंध के राजा हो गए थे जो मेकला के वाकाटक प्रांत के साथ संबद्ध हो गया था। मैंने यह निश्चय किया है कि यह मेकला वही सप्त कोशला वाला प्रांत था जो उस मैकल पर्वत- माला के नीचे था जो आज-कल हमारे नक्शों में दिखलाई जाती है, अर्थात् जहाँ आज-कल रायपुर का अंगरेजी जिला और बस्तर की रियासत है। वाकाटक साम्राज्य के संस्थापक विंध्यशक्ति के समय से लेकर समुद्रगुप्त की विजय के समय तक आंध्र देश के इन वाकाटक अधीनस्थ राजाओं की सात पीढ़ियों ने राज्य किया था। इस प्रकार यहाँ हमें एक ऐसा सूत्र मिल जाता है जिससे हम यह पता लगा सकते हैं कि ये पल्लव कौन थे। दूसरा सूत्र वाकाटकों की जाति और गोत्र है। वाकाटकों के शिलालेखों से हमें यह बात ज्ञात हो चुकी है कि वे लोग ब्राह्मण थे और भार- द्वाज गोत्र के थे। तीसरी बात यह है कि पल्लव लोग आर्यावर्त के थे और उनकी भाषा उत्तरी थी, द्रविड़ नहीं थी। चौथी बात विंध्यशक्ति का समय और वंश है। और पाँचवीं बात यह है कि जिस समय विंध्यशक्ति का उदय हुआ था, उस समय आर्यावर्त तथा मध्यप्रदेश पर नाग सम्राट् राज्य करते थे और विंध्यशक्ति उन्हीं के कारण और उन्हीं लोगों में से अर्थात् किलकिला नागों में से निकलकर सबके सामने आया था, क्योंकि उसके संबंध में कहा गया है कि 'ततः किलकिलेभ्यश्च विध्यशक्तिर्भविष्यति । विंध्यशक्ति के राजा और सम्राट् किलकिला नाग अर्थात भार- २२