( ३०० ) पौराणिक युग अर्थात् वाकाटकों (विंध्यकों) के समय तक चले आ रहे थे। इस संबंध में उनके मूल पाठ इस प्रकार हैं- मत्स्य-आंध्राणाम् संस्थिता राज्ये तेषां भृत्यान्वये नृपाः । सप्तैव आंधा भविष्यन्ति दश भाभीरस्तथा नृपाः । (२७१, १७-१८) भाग०-सप्त = आभीर = आंव्रभृत्याः। विष्णु०-आंध्रभृत्याः सप्त = आभीराः२ ( जहाँ विष्णुपुराण ने भागवत का कुछ अंश उद्धृत करते समय पढ़ने में कुछ भूल की है और आंध्रभृत्याः को सप्त आभीराः का विशेषण माना है।) इस प्रकार यह बात स्पष्ट ही है कि मत्स्यपुराण और भागवत में राजवंशों की संख्या नहीं दी गई है। उनमें यही कहा गया है कि आंधों के अधीन आभीरों और अधीनस्थ आंधों के राजवंश थे (यहाँ यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि साम्राज्य-भोगी आंध्रों से अधीनस्थ आंध्र अलग थे) और इन राजवंशों की स्थापना आंधों ने की थी। मि० पारजिटर ने इन दोनों भिन्न भिन्न बातों को इस प्रकार मिलाकर एक कर दिया है, मानों वे दोनों एक ही हों और उनका एक ही अर्थ हो; और तब एक ऐसा नया पाठ प्रस्तुत कर दिया है जो यहाँ सबसे ज्यादा गड़बड़ी पैदा करता है। इन दोनों राजवंशों के अतिरिक्त मत्स्यपुराण में एक और राजवंश का उल्लेख किया है, जिसका नाम उसमें श्रीपार्वतीय दिया है। १. जे० विद्यासागर का संस्करण, पृ० ११६०. ६. जे. विद्यासागर का संस्करण, पृ० ५८४, ४, १४, १३.
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