पृष्ठ:अंधकारयुगीन भारत.djvu/२५३

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( २२५) यह वर्णन पढ़कर यही समझेंगे कि यह ईश्वर के गुणों का पाखंड-पूर्ण ध्यान है । परंतु वास्तव में बात ऐसी नहीं है। भक्ति- मार्ग में सर्वश्रेष्ठ सिद्धांत यह है कि उसके आराध्य देव में अनन्यता होनी चाहिए-दोनों में कुछ भी अंतर न रह जाना चाहिए । भक्त में धीरे धीरे उसके आराध्य देवता के गुण आने लगते हैं और तब अंत में भक्त का रूप इतना अधिक परिवर्तित हो जाता है कि वह अपने आराध्य देवता के साथ मिलकर एक हो जाता है। वह अपने देवता का प्रचारक और प्रतिनिधि रूप से काम करनेवाला बन जाता है। वह केवल मध्यवर्ती या निमित्त मात्र बन जाता है और उसके सभी कार्य उसके आराध्य देवता या प्रभु को अर्पित होते हैं। गुप्त लोग अपने मन में इस बात का अनुभव करते थे और इस पर पूरा पूरा विश्वास रखते थे कि हम विष्णु के सेवक और कार्यकर्ता हैं, हम विष्णु की ओर से एक विशेष कार्य करने के लिये नियुक्त हुए हैं और विष्णु की ही भाँति हमें भी अनधिकारी और धर्मभ्रष्ट राजाओं पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, विष्णु की ही तरह हमें पूर्ण रूप से सबका स्वामी बनकर उन पर शासन करना चाहिए; और विष्णु के हाथ का कमल जो यह कहता है कि हम सबको सुखी करेंगे, उसी के अनुसार भारतवर्ष के समस्त निवासियों को सुखी और प्रसन्न करना चाहिए । उन लोगों ने यह कार्य पूर्ण रूप से संपादित किया ने यह बात अच्छी तरह अपने मन में समझ ली थी कि हमने यह काम बहुत अच्छी तरह से पूरा किया और इस प्रकार हम स्वर्ग के अधिकारी बन गए हैं। विष्णु की तरह समुद्रगुप्त और उसके अधिकारियों ने भी भारतवर्ष को धन-धान्य से भली भाँति पूर्ण कर दिया था और यहाँ संपन्नता, वैभव तथा संस्कृति की स्थापना कर दी थी। १५ था और समुद्रगुप्त